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{{KKRachna
|रचनाकार=विजय राही
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
तन्हाई से जब उकताके बैठ गया ।
मैं फिर मयखानें में आके बैठ गया ।
पत्थर को पत्थर ही अच्छे लगते हैं,
सो अपने तबके में जाके बैठ गया ।
आज गली से मैंने देखा था उसको,
चंदा छत पर ही शरमाके बैठ गया ।
दो घंटे तक बात नही की जब उसने,
क्या करता मैं ,मुँह लटकाके बैठ गया ।
शाम ढली तो हम भी अपने घर आये,
साया पास हमारे आके बैठ गया ।
लोगों ने पूछा जब उसके बारे में,
'राही' अपनी नज़्म सुनाके बैठ गया ।
</poem>
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तन्हाई से जब उकताके बैठ गया ।
मैं फिर मयखानें में आके बैठ गया ।
पत्थर को पत्थर ही अच्छे लगते हैं,
सो अपने तबके में जाके बैठ गया ।
आज गली से मैंने देखा था उसको,
चंदा छत पर ही शरमाके बैठ गया ।
दो घंटे तक बात नही की जब उसने,
क्या करता मैं ,मुँह लटकाके बैठ गया ।
शाम ढली तो हम भी अपने घर आये,
साया पास हमारे आके बैठ गया ।
लोगों ने पूछा जब उसके बारे में,
'राही' अपनी नज़्म सुनाके बैठ गया ।
</poem>