भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़तरे / वेणु गोपाल

13 bytes removed, 17:07, 3 सितम्बर 2008
ख़तरे पारदर्शी होते हैं।
 
ख़ूबसूरत।
 
अपने पार भविष्य दिखाते हुए।
 
जैसे छोटे से गुदाज बदन वाली बच्ची
 
किसी जंगली जानवर का मुखौटा लगाए
 
धम्म से आ कूदे हमारे आगे
 
और हम डरें नहीं। बल्कि देख लें
 
उसके बचपन के पार
 
एक जवान खुशी
 
और गोद में उठा लें उसे।
 
ऐसे ही कुछ होते हैं ख़तरे।
 
अगर डरें तो ख़तरे और अगर
 
नहीं तो भविष्य दिखाते
 
रंगीन पारदर्शी शीशे के टुकड़े।
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,865
edits