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तुम कहते तो / वसुधा कनुप्रिया

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<poem>
तुम कहते तो मैं बदल भी सकती थी
साथी बनकर साथ चल भी सकती थी
तुमने लेकिन मुझे ऐ दिल पुकारा नहीं
साथ मेरा था तुम को शायद गवारा नहीं
नहीं चाहते थे सफ़र जीवन भर का
मैंने भी नसीबा ख़ुद अपना संवारा नहीं
मुझे ये ज़िद थी हाथ तुम बढ़ाओगे
हूँ जैसी तुम वैसे ही गले लगाओगे
न बदलना चाहती थी मैं तुम्हें थोड़ा भी
तुम भी मुझे इसी तरह अपनाओगे
मेरे दिल में था जुनून पढ़ जाऊँ मैं
नाम रोशन इस जहां में कर जाऊँ मैं
नहीं परछाई सी बनकर रहूँ जीती सदा
पहचान अपनी अलग ही बनाऊँ मैं
तुम्हारे मन को शायद यही स्वीकार न था
वो बंधन कुछ भी हो मगर प्यार न था

प्यार करते तो तुम पंख भी खुलने देते
एक पंछी को कफ़स में न सिसकने देते
खोलते बाँहो सा आकाश मेरा लिये
क्षितिज तक तो जानां मुझे उड़ने देते

मेरे सपनों को तुम अपना बना सकते थे
दिल में रखा था जीवन में भी रख सकते थे
तुम कहते रुक जाओ तो रुक ही जाती मैं
नसीब हम दोनों का तुम ही बदल सकते थे

बन के नारी गुनाह क्या कोई मुझसे हुआ
हर बशर ने सवाल बस मुझ से किया
मुझी से हमेशा की उम्मीद कुर्बानी की
कि मैं खा लूँ क़सम बे-ज़ुबानी की
न सोचूँ, न बोलूँ, न कभी कुछ कहूँ
दूँ इजाज़त घर समाज को मनमानी की
तुम भी बस आम से एक पुरुष ही रहे
चाहते थे प्रिया कभी कुछ न कहे
तुमने बनाई थी तस्वीर इक दासी की
मैं हूँ समर्थ, निश्चयी औ विश्वासी सी
था समर्थन तुम्हारा तो प्यारा मुझे
नहीं वर्चस्व था मगर गवारा मुझे
तुम मिटाने यह भेद आगे बढ़ न पाये
अधिकार बराबरी का मुझे दे न पाये

पीछे हट एक राह तुमने दिखाई थी
अकेले चलने की हिम्मत मैं जुटा पाई थी
सफ़र अच्छा रहा हर क़दम मेरा
ढूंढ़ा नहीं कभी फिर कोई सहारा

सुनो, अकेले सफ़र अब कर रही हूँ मैं
साथ ख़ुद के औरों को बदल रही हूँ मैं
थी ललक परवाज़ की जिन पंखों में
उड़ान उनकी देख खिल रही हूँ मैं
दिखाया है विस्तार आकाश का उनको
था अपने सामर्थ्य पर विश्वास जिनको
तुम आते तो आनंद भी दुगना होता
साथ हंसना-रोना, कहना सुनना होता
कोई रंज नहीं और ग़म भी नहीं कोई
फसल उम्मीद की मैंने थी अकेले बोई

तुम कहते तो मैं बदल भी सकती थी
साथी बनकर साथ चल भी सकती थी
तुमने लेकिन मुझे ऐ दिल पुकारा नहीं
साथ मेरा था तुम को शायद गवारा नहीं
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