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Kavita Kosh से
कंचे / भवरें / पतंगों
की लड़ाई लड़ते थे
तब-मैंने
एक छत को खड़ी रखने
के लिए या ज़िन्दगी को धूप से बचाने के लिए
अपने
बचपन सपने / भँवरे-कंचे-पतंग
सबगहरे उतार दिए
उस मकान की नींव में
देने को
सघन आत्मीयता कि छाया
और-अबदेखता हूँ-मैं
प्रतिवाद
मजबूती से खड़ी
आक्रोश की भाषा
क्यों बोल रहा है?
शायद-अनुभवों का बस्ता
एक नवानुभव की परत
खोल रहा है।
और-मैं। मुक–जी मुक जी रहा हूँ...एक-अन्तद्रन्द
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