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रात-दिन की हर परेशानी भली है।
शोर ये कैसा हुआ, मेरी गली है?
मौत से आगाह जो करती नहीं फिर,
कोई पूछे, किस तरह की खलबली है?
तुम न हंगामा खड़ा करना कोई भी,
उसके वादे की घड़ी फिर से टली है।
सोच के देखो तो ये ही पाओगे तुम,
आदमी बिन इल्म, मिट्टी की डली है।
ज़िन्दगी के तज्रुबे हमको सिखाएँ,
‘नूर’ हर दिन बात भी किस की चली है।
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