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न होंठों पर हँसी आई, न आँखों में चमक देखी।
गगन पर चाँद भी आया, न पहले-सी दमक देखी।
न बिजली ही गिरी आँगन, न बरसा झूम के सावन,
न पत्तों पर चमक देखी, न फूलों में महक देखी।
न भादों की झड़ी देखी, न सावन में पड़े झूले,
न मिलने की ललक देखी,न चिड़ियों की फुदक देखी।
 
न पेड़ों पर बहार आई, न गायक से सुनी कजली,
न फ़स्लें खेत में देखीं, न बादल में धनक देखी।
 
न देखा रूप बरखा का, न देखा ताल में पानी,
जो देखी ‘नूर’ तो हमने जलाते तन, तपन देखी।
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