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Kavita Kosh से
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी
ख़ुदा को पा गया वायज़ , मगर है
ज़रूरत आदमी को आदमी की
बसा-औक्रातऔक़ात<ref>कभी-कभी</ref> दिल से कह गयी है
बहुत कुछ वो निगाहे-मुख़्तसर भी
है कितनी शोख़, तेज़ अय्यामे-गुल<ref>बहार के दिन</ref>पर
चमन में मुस्कुहराहट मुस्कुराहट कर कली की
रक़ीबे-ग़मज़दा<ref>दुखी प्रतिद्वन्द्वी</ref> अब सब्र कर ले