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|संग्रह=कनुप्रिया / धर्मवीर भारती
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यह जो मैं गृहकाज से अलसा कर अक्सर
इधर चली आती हूँ
और कदम्ब की छाँह में शिथिल, अस्तव्यस्त
अनमनी-सी पड़ी रहती हूँ....
यह जो पछतावा अब मुझे हर क्षणसालता रहता है किमैं गृहकाज उस रास की रात तुम्हारे पास से अलसा लौट क्यों आयी ?जो चरण तुम्हारे वेणुवादन की लय परतुम्हारे नील जलज तन की परिक्रमा दे कर अक्सर<br>नाचते रहेइधर चली आती हूँ<br>वे फिर घर की ओर उठ कैसे पायेऔर कदम्ब मैं उस दिन लौटी क्यों-कण-कण अपने को तुम्हें दे कर रीत क्यों नहीं गयी ?तुम ने तो उस रास की छाँह में शिथिल, अस्तव्यस्त<br>रातअनमनीजिसे अंशत: भी आत्मसात् कियाउसे सम्पूर्ण बना करवापस अपने-सी पड़ी अपने घर भेज दियापर हाय वही सम्पूर्णता तोइस जिस्म के एक-एक कण मेंबराबर टीसती रहती हूँ....<br><br>है,तुम्हारे लिए !
यह पछतावा अब मुझे हर क्षण<br>सालता रहता है कि<br>मैं उस रास की रात तुम्हारे पास से लौट क्यों आयी कैसे हो जी तुम?<br>जो चरण तुम्हारे वेणुवादन की लय पर<br>तुम्हारे नील जलज तन की परिक्रमा दे कर नाचते रहे<br>वे फिर घर की ओर उठ कैसे पाये<br>जब मैं उस दिन लौटी क्यों-<br>कण-कण अपने को तुम्हें दे कर रीत क्यों जाना ही नहीं गयी ?<br>चाहतीतुम ने तो उस रास की रात<br>बाँसुरी के एक गहरे अलाप सेजिसे अंशत: भी आत्मसात् किया<br>उसे सम्पूर्ण बना कर<br>वापस अपने-अपने घर भेज दिया<br>मदोन्मत्त मुझे खींच बुलाते हो
पर हाय वही सम्पूर्णता तो<br>इस जिस्म के एक-एक कण में<br>बराबर टीसती रहती है,<br>तुम्हारे लिए !<br><br> कैसे हो जी तुम ?<br>जब मैं जाना ही नहीं चाहती<br>तो बाँसुरी के एक गहरे अलाप से<br>मदोन्मत्त मुझे खींच बुलाते हो<br><br> और जब वापस नहीं आना चाहती<br>तब मुझे अंशत: ग्रहण कर<br>सम्पूर्ण बना कर लौटा देते हो ! <br/poem>
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