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किरच / रेखा राजवंशी

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<poem>
चटके शीशे की किरच की तरह
न जाने कहाँ का ग़म
दिल में आकर चुभ गया है

महसूस तो करती हूँ बेपनाह दर्द
और उसे निकाल फेंकने के लिए
लगा देती हूँ शक्ति!

परन्तु किरच 'किरच' है
छोटी बारीक़ और पारदर्शी
बहते हुए रक्त में रंगी हुई लाल
जो निकालने के प्रयास में
अन्दर की ओर समाती जा रही है

कि जैसे यह दर्द, यह टीस
तुम्हारी यादों के गुलमोहर के
फूलों के गुच्छे की महक सी
मेरे अस्तित्व से जुड़ गई है
और जाने कब ये किरच
मेरे समूचे अस्तित्व का
एक हिस्सा बन गई है।

<poem>
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