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वह बिलकुल अनजान थी! मेरा उससे रिश्ता बस इतना था उस उत्साह की सोचोजिससे कि हम एक पंसारी के ग्राहक थे लोगनए मुहल्ले में। फ़रमाइशी चिट्ठियाँ लिखते हैं विविध भारती को!सोचो उन नन्हे-नन्हेवह मेरे पहले से बैठी थी टॉफ़ी क्रान्तिबीजों के मर्तबान से टिककर बारे मेंस्टूल संपादक के राजसिंहासन पर। नाम की चिठ्ठियों मेंजो अँकुरते हैं बस पत्ती-भर!मुझसे भी ज़्यादा थकी दीखती थी वह नाराज़गी की एक लुप्तप्राय प्रजाति के बारे मेंफिर भी वह हँसी! सोचो तोउस हँसी का न तर्क था सोचो उन मीठे उलाहनों कीन व्याकरण जो लोग देते थेन सूत्र न अभिप्रायमिले हुए अर्सा हो जाने पर! वह ब्रह्म की हँसी थी। तूफ़ान उसने फिर हाथ प्यालों में भी बढ़ाया और मेरी शाल का सिरा उठाकर उसके सूत किए सीधे मचते हैं जो बस की किसी कील से लगकर भृकुटि की तरह सिकुड़ गए थे। वे ऐसे उद्दीप्त होते हैंजैसे चुम्बनपल भर को लगा, उसके उन झुके कंधों नींद से माती आँखों परमेरे भन्नाए हुए सिर का बेहद पुराना है बहनापा। भोर के पहले पहर!
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