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विनती / गुलरेज़ शहज़ाद

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बीतल-काटल काल
ई हमरा मन पड़ल बा

कतना नाया लोग जुड़ल
सुरसत्ती के बरद पुत्र
आ सब्द जगत के
साथी छुटलें
लोकराग आ रंगन के
बरियाती छुटलें

सन्नाटा कोठरी में
घुर्मी काट रहल बा
भाव के अदहन
मन में डभके

फड़फड़ात बा
कतना जोग-संजोग के पन्ना
कतना साथ के काटल रतिया
जगमग करे
बाकिर मन के कोना में दुःख
छंउक रहल बा

बिछुड़ल साथी-सँघाती लोग से
भेंट ना होखी
याद के फुलवारी में मनवा
दोला पाती खेल रहल बा
मन विह्वल बा

गजब विधान विधि के बाटे
जे आइल उ जइबे करी

विनती अतने करत बानीं
सबके साथ बनल रहे बस
नेह-छोह के डोर ना टूटे
अब केहू साथी ना छूटे

</poem>
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