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<poem>
यूँ पहचान
खुद अंदर झाँक
रब को जान!

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बदली आई
अखियों में उतरी
जा नहीं पाई

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तेरी औ’ मेरी
कब से बन गया
तेरी या मेरी?

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आया वो जब
था गुहर - तलब
ले गया सब !

{{KKBR}}

रात जो आई
तुझको न पाकर
नींद न लाई

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तेरी दुनिया
बन न पाई, आह!
मेरी दुनिया

{{KKBR}}

तुझ को पाया
तो फिर अकेला क्यूँ
खुद को पाया

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कैसा ये रब
चलाए अपनी ही
जाने तो सब !

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दूरी ने लूटा
मिलना ज़रूरी था
तिलिस्म टूटा
(तिलिस्म – जादू)

{{KKBR}}

दिल ये फिर
पुराने मश्गलों से
गया है घिर
</poem>