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|संग्रह=मन रो सरणाटो / इरशाद अज़ीज़
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<poem>
बगत री लूवां रा
थपेड़ा खावती
म्हारी मायड़ भासा
थूं हिम्मत मत हारजै

बताय दै आं मौकापरस्त लुटेरां नैं
अर कैय आंनै कै
लगावो थांरो जोर
बतावो थांरी औकात

म्हैं मरुधर री जायी हूं
काचरिया री कुचमाद सूं
कदैई नीं डरूं

म्हारै खांडां री धार
अजै तांई कुंध नीं पड़ी
माथो देवां तो लेवणो भी जाणां
पीठ दिखावणो म्हैं नीं जाणां
साच नैं आंच नीं हुया करै
जे देखणो चावो
तो देखो इतियास नैं
देवो जवाब जे थांरै कनै हुवै
कांई हुयो? गिणतीं नीं हुवै!
म्हे चुप हां, इणरो मतलब समझो

थे ई जाणो हो कै
हर सरणाटै रै बाद
तूफान आवै
अर जद बो आवै
तो कांई छोडै है लारै!
</poem>
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