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समदर (अेक) / इरशाद अज़ीज़

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|संग्रह= मन रो सरणाटो / इरशाद अज़ीज़
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<poem>
वाह रे समदर
थारो अणमावतो पसराव
निजरां में नीं समावै
फाट जावै आंख्यां देखण आळै री।
कित्तो गुमेज करै है थूं
आपो-आपरै पसराव माथै
डुबोय नांखै गांव खेड़ा
अर गवाड़ सै कीं
जद चावै तद
कित्तो खारो है थूं !
</poem>
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