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{{KKRachna
|रचनाकार=पद्माकर शर्मा 'मैथिल'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
दर्द मेरा स्वर तुम्हारा, मिल ना पाया
गीत बिन गाए हुए से रह गए।
हृदय में मंथन हुआ, कुछ स्वर छलक आए गले तक,
दर्द में जब पक चुके वे, भोर से दीपक जले तक,
अधर कम्पित से हुए, स्वर छटपटाए व्यक्त होने,
अधर-सी डाले तुम्हारे ही स्वरों से तृप्त हाने,
किन्तु तुम कितने निठुर, स्वर दान भी न दे सके,
दूर तो देना रहा, कुछ दर्द भी न ले सके,
दर्द कडुआ, स्वर मधुर, विपरित दोनों
प्राण भरमाए हुए से रह गए।
प्राण का गहरा समन्दर, विरह की ज्वाला,
उठी जब भाप, दर्शन।आस शीतल बना डाला,
तभी निःश्वास के मारूत झकोरों से उडे बादल,
उमस पाकर नयन की राह, बहे को बढे अविरल,
बहुत चाहा रोक लूं, पर क्या कभी गुब्बार रूकता हैं
किनारा हो भले घायल, मगर कब ज्वार रूकता हैं
दर्द पिघला अश्रु बनकर वह गया
नयन बौराए हुए से रह गए
</poem>
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|अनुवादक=
|संग्रह=
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दर्द मेरा स्वर तुम्हारा, मिल ना पाया
गीत बिन गाए हुए से रह गए।
हृदय में मंथन हुआ, कुछ स्वर छलक आए गले तक,
दर्द में जब पक चुके वे, भोर से दीपक जले तक,
अधर कम्पित से हुए, स्वर छटपटाए व्यक्त होने,
अधर-सी डाले तुम्हारे ही स्वरों से तृप्त हाने,
किन्तु तुम कितने निठुर, स्वर दान भी न दे सके,
दूर तो देना रहा, कुछ दर्द भी न ले सके,
दर्द कडुआ, स्वर मधुर, विपरित दोनों
प्राण भरमाए हुए से रह गए।
प्राण का गहरा समन्दर, विरह की ज्वाला,
उठी जब भाप, दर्शन।आस शीतल बना डाला,
तभी निःश्वास के मारूत झकोरों से उडे बादल,
उमस पाकर नयन की राह, बहे को बढे अविरल,
बहुत चाहा रोक लूं, पर क्या कभी गुब्बार रूकता हैं
किनारा हो भले घायल, मगर कब ज्वार रूकता हैं
दर्द पिघला अश्रु बनकर वह गया
नयन बौराए हुए से रह गए
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