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|रचनाकार=पद्माकर शर्मा 'मैथिल'
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<poem>
दिन बीता दुपहरिया बीती रैना भोर उमरिया बीती,
लेकिन तेरी गली आ सकूं ऐसी घड़ी न फिर आ पाई।

फिर अंगूरी साँझ ढली होगी तेरे छत के छज्जों पर,
फिर सिंदूरी सुबह चली होगी तेरे आँगन बनठन कर,
फिर तुमने खिड़की खोली होगी, दरपन में झांका होगा,
फिर आवारा हवा बही होगी, तेरे आँचल से छन कर,

तुम से दूर नगरिया पाई,
विधवा साँस।गुजरिया पाई,
लेकिन तेरी झलक पा सकूं
ऐसी घड़ी न फिर आ पाई।

बीती घड़ियाँ आँखों पर, छालों-सी उभर।उभर आती है,
याद तुम्हारी बादल के टुकड़ों-सी बिखर।बिखर जाती है,
मन के टूटे दरपन में भी बिम्ब उतर आता है तेरा,
जैसे खण्डहर पर चन्दा कि किरनें उतर।उतर आती हैं,

पीड़ा भरी गठरिया पाई, सांसो की बांसुरियाँ पाई,
लेकिन तेरा प्यार पा सकूं, ऐसी घड़ी न फिर आ पाई।
</poem>
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