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आहत / विकास पाण्डेय

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<poem>
छीन लो मेरा सब कुछ,
लूट लो मेरा सर्वस्व।
कर दो मेरे टुकड़े-टुकड़े
और बनाए रखो अपना वर्चस्व।

मेरी जमीन, मेरा धन,
मेरे संसाधन सब बाँट दो।
कर दो द्दिन्न-भिन्न,
मेरा अंग-अंग काट दो।

बाँट दो मुझे दलितों में,
पिछड़ों और अगड़ों में।
जला दो मुझे रेत कर,
सांप्रदायिक झगड़ों में।

घेर दो किसी मानसिक
संकीर्णता के मण्डल में,
या ठूँस दो मुझे दर्पहीन
केसरिया कमण्डल में।

तौल दो मेरा वजूद
जातियों में बंटे वोटों से,
खरीद लो मेरी अन्तरात्मा
भ्रष्टाचार जनित नोटों से।

सब सह लूँगा निःशब्द
क्योंकि मैं अत्यंत महान हूँ।
क्योंकि तुम उन्मादियों के नेता हो
और मैं, विकास की भूलभुलैया में
खोया हिन्दुस्तान हूँ।
</poem>
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