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फागुन / विकास पाण्डेय

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आया फागुन, मधुर वसंती राग लिए।
है स्वागत को आतुर वसुधा, अनुराग लिए।
पुष्पलताएँ लहराईं पुलकित होकर
अलि गुंजन करते हैं प्रेम-पराग लिए।

पीत-वसन सरसों पर मुग्ध हुई अलसी,
लगी दिखाने नृत्य, लिए कटि पर कलसी।
चली जो पुरवाई तो सरसों झूम गया,
उसके नील-कपोल पुष्प को चूम गया।
कृत्रिम क्रोध दिखाई अलसी, पर मन में
प्रीत-प्रणय का आधा-आधा का भाग लिए।

आया फागुन, मधुर वसंती राग लिए।
है स्वागत को आतुर वसुधा, अनुराग लिए।

पूर्ण चन्द्र पर कौमुदी जो मुदित हुई
अठखेल की इच्छा उर में उसके उदित हुई।
हरित रंग ले हाथों में छुपकर, छलकर
बोली, 'होली है' चन्दा के मुखपर मलकर
तबसे दीखता है चाँद हरा वह दाग लिए
आया फागुन, मधुर वसंती राग लिए।
है स्वागत को आतुर वसुधा, अनुराग लिए।


इस ऋतु में पाषाण हृदय भी पिघल गए
सूखे वृक्षों में भी कोंपल निकल गए।
कहाँ मगन हो मेरे प्रियतम, आ जाओ,
प्रीत सुधा से सींचो, विरह मिटा जाओ।
क्यों फिरते हो तुम मन में वैराग लिए!
आया फागुन, मधुर वसंती राग लिए।
है स्वागत को आतुर वसुधा, अनुराग लिए।

मेरे मन में माधुर्य कहो क्या कमतर है!
प्रेम प्रकाश से आलोकित अभ्यन्तर है।
तुम पुष्प बनो, मैं मधुकर बनकर गाऊँगा।
है शपथ यही, आजीवन साथ निभाऊँगा।
आऊँगा मैं स्वयं सिंदूर-सुहाग लिए।
आया फागुन, मधुर वसंती राग लिए।
है स्वागत को आतुर वसुधा, अनुराग लिए।
</poem>
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