|रचनाकार=देवेन्द्र आर्य
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मेरी भी आँख में गड़ता है भाई
मगर रिश्तों में वो पड़ता है भाई
जमाने की नहीं परवाह लेकिन
वही आरोप जब मढ़ता है भाई
खरी खोटी सुनाके लड़के सुना के लड़ के मुझसे
फिर अपने आप से लड़ता है भाई
जिसे मैं भूल जाना चाहता हूँ
बराबर याद क्यों पड़ता है भाई
भले कितना ही सुन्दर हो, सफल हो
मगर सपना भी तो सड़ता है भाई
मुझे लगता है मैं ही बढ़ रहा हूँ
मेरे बदले में जब बढ़ता है भाई
जिसे तुम शान से कहते हो ग़ैर
वो अव्वल किस्म क़िस्म की जड़ता है भाई
ये मामूली सा दिखता भाई चारा
बहुत मंहगा कभी पड़ता है भाई