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ख़ुशबू पे लेकिन एक भी पत्थर नहीं गया
सारा स़फर सफ़र तमाम हुआ ज़हन से मगर
रस्ते की धूप-छाँव का मंज़र नहीं गया
हम भी म़काम मक़ाम छोड़ के इज़्ज़त गँवाएँ क्यूँ
नदियों के पास कोई समन्दर नहीं गया
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