|रचनाकार=देवेन्द्र आर्य
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पास पास थे चुभे, गड़े।
दूर दूर थे, नए लगे।
शहर भी अजीब है तेरा
भीख दी तो ज़ात जात पूछ के।
अपने ग़म में जल रही है वो
जाइए न हाथ सेंकिए।
रात जैसे लिख रही हो ख़त
दिन कि जैसे खो गए पते।
इश्क हमने इस तरह किया
जैसे कोई सीढ़ियाँ चढ़े।
डिगरियाँ कराहने लगीं
क्या बिके कि नौकरी लगे।
औरतें कठिन न हों तो मर्द
एक बार पढ़ के छोड़ दे।
</poem>