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सैनिक / विकास पाण्डेय

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<poem>
भारत के प्रति समर्पण का
निज धर्म निभाने आया हूँ।
स्वतंत्रता कि वेदिका पर
सुमन चढ़ाने आया हूँ।
मैं देश बचाने आया हूँ।

माँ के स्वप्निल स्पर्शों को
पिता के स्नेहिल बाहों को।
छोड़ दिया मैंने पीछे
भार्या कि झुकी निगाहों को।
अपनी धरती माता का
आलिंगन पाने आया हूँ।
मैं देश बचाने आया हूँ।

मुझ को आकर्षित कर न सकी
नूपुरों की झंकार कभी।
सम्मोहन मुझमें भर न सके
प्रेम-वाद्य के तार कभी।
शत्रु को अब रणभेरी का
नाद सुनाने आया हूँ।
मैं देश बचाने आया हूँ।

स्वर है शांति का श्वेत रंग
और केसरिया है बल मेरा।
इस धरती की हरियाली
को अर्पित है हर पल मेरा।
श्वेत-हरा-केसरिया तीनों
रंग जमाने आया हूँ।
मैं देश बचाने आया हूँ।

आतंकवाद के पोषक और
अलगाव के ठेकेदारों को।
सीमा पार के शत्रुओं
और छुपे हुए गद्दारों को
और नए अंग्रेजों को
औकात बताने आया हूँ।
मैं देश बचाने आया हूँ।

बहुत उपाय थे जीवन भर
धन बहुत कमा सकता था मैं।
अपने खेत की मिट्टी से
सोना उपजा सकता था मैं।
सर्वस्व त्याग, मैं वीरोचित
ऐश्वर्य कमाने आया हूँ।
मैं देश बचाने आया हूँ।
</poem>
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