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याद नहीं, कहाँ-कहाँ गया मैं, ईरान-तूरान, अमेरिका-यूरोप
हर कहीं बनारस और गँगा को खोजता हुआ
मज़हब और मौसीकी मौसीक़ी के बीच सँगत कराता हुआ
मैंने कहा — कैसे बस जाऊँ आपके अमेरिका में
जहाँ न गंगा है, न बनारस, न गंगा-जमुनी तहजीबतहज़ीब
जिन्होंने मुझसे कहा इस्लाम में मौसिकी हराम है
उन्हें शहनाई पर बजाकर सुनाया राग भैरव में अल्लाह
वह सुर ही है जिससे आदमी पहुँचता है उस तक
जिसे ख़ुदा कहो या ईश्वर कहो या अल्लाह
अरे, अगर इस्लाम में है मौसिकी मौसीक़ी हराम
तो कैसे पैदा हुए पचासों उस्ताद
जिनके नाम से शुरू हुए हिन्दुस्तानी संगीत के घराने तमाम
अब्दुल करीम, अब्दुल वहीद, अल्लादिया, अलाउद्दीन,
मँजी, भूरजी, रजब अली, अली अकबर, विलायत, अमीर खानख़ान, अमजद
कहाँ तक गिनाएँ नाम ।
उन्हें मेरे अपने ही पोते नज़रे हसन ने चुराया
और सिर्फ़ एक महँगा मोबाइल ख़रीदने की ख़ातिर
बेच दिया फकत फ़क़त 17000 रुपये में
उनकी चान्दी गला दी गई, लकड़ी जला दी गई
उनके सुर हुए सुपुर्दे-ख़ाक
अच्छा हुआ इस बीच मैं रुखसत रुख़सत हो गया
बनारस अब कहाँ थी मेरे रहने की जगह ।
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