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Kavita Kosh से
तू निज मानस-ग्रंथ खोल दोनों की गरिमा गाती है,
वीचि-दृर्गों से हेर-हेर सिर धुन-धुन कर रह जाती है।
::देवी देवि! दुखद है वर्त्तमान की यह असीम पीड़ा सहना।
::नहीं सुखद संस्मृति में भी उज्ज्वल अतीत की रत रहना।
अस्तु, आज गोधूलि-लग्न में गंगे! मन्द-मन्द बहना;