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Kavita Kosh से
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मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे
वक़्त पडने पड़ने पे हाथों से जाते रहे
लोग टूटी छते आज़माते रहे
घर के अन्दाज़ ही घर से जाते रहे
आंसुओं-से इन आंखों मे आते रहे
दूर तक हाथ मे कोई पत्थर न था
फिर भी, हम जाने क्यों सर बचाते रहे
शाइरी जह्र थी, क्या करे करें ऐ 'वसीम'
लोग पीते रहे, हम पिलाते रहे
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