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मैं अछूती / अंकिता जैन

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माहवारी के तीन दिन
बहते रक्त से उपजी छटपटाहट
चटपटा खाने की लालसा,
बढ़ी हुई भूख,
चिड़चिड़ापन बढ़ाते हार्मोन्स,
मरूढ़ते पेट, छिली हुई जाँघों और दर्द से फटते सर के अलावा
जो देते हैं, वह है
परोसी हुई थाली
और ढेर सारा समय।
जिसमें वह सोच सकती है
कि क्या लिखे?
क्या देखे?
क्या पढ़े?
बजाय सोचने के
कि क्या पकाए?

माहवारी के "इन दिनों" में
होता है वक़्त कुछ "ना" करने के लिए भी
कि जी भरकर सुस्ता सके
कर सके बेवक़्त ठिठौली अपने बच्चों के साथ,
बतिया ले अपने मित्रों से
बिना घड़ी देखे,
घिस ले गर्दन, कोहनी, एड़ियाँ,
चमका ले त्वचा उबटन से महीने भर के लिए,
रोज़ जिसके आड़े आता है
भागमभाग में किया मग्गा भर स्नान।
काट ले अख़बार से कुछ तस्वीरें, बासी ख़बरें, पकवानों की विधि, या सुडोकू ही,
सब, जो दब गए थे रद्दी तारीख़ों के ढेर में।
ना चिंता हो सुबह वक़्त पर उठने की,
ना मजबूरी हो रात जल्दी सोने की।
करे कुछ मन का,
या बस लेटी ही रहे घूमते पँखे को ताकती।
"अछूत" बनाकर माहवारी के ये दिन
उसे "उसका अपना" वक़्त दे जाते हैं
जो वह "छूत" होते हुए पाने की जद्दोजहद में जीवन गुज़ार देती है।
</poem>