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Kavita Kosh से
हरे हरे पत्तों पर जो हैं सजीं हुईं
भोर के धुंधलके में अवतरित धरा
पर चुपचाप बिखरते तुहीन तुहिन कण !
देख, उनको सोचती हूँ मैं मन ही मन
क्यों इनका अस्त्तित्त्व, वसुंधरा पर ?