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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=
|संग्रह=मिलन यामिनी / हरिवंशराय बच्चन
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<poem>
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
 
दिवस में सबके लिए बस एक जग है
 
रात में हर एक की दुनिया अलग है,
 
कल्‍पना करने लगी अब राह मन में;
 
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
 
भूमि के उर तप्‍त करता चंद्र शीतल
 
व्‍योम की छाती जुड़ाती रश्मि कोमल,
 
किंतु भरतीं भवनाएँ दाह मन में;
 
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
 
कुछ अँधेरा, कुछ उजाला, क्‍या समा है!
 
कुछ करो, इस चाँदनी में सब क्षमा है;
 
किंतु बैठा मैं सँजोए आह मन में;
 
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
 
चाँद निखरा, चंद्रिका निखरी हुई है,
 
भूमि से आकाश तक बिखरी हुई है,
 
काश मैं भी यों बिखर सकता भूवन में;
 
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
</poem>
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