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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=
|संग्रह=प्रारंभिक रचनाएँ / हरिवंशराय बच्चन
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<poem>
गीत मेरे खग बाल!
 
हृदय के प्रांगण में सुविशाल,
 
भावना-तरु की फैली डाल,
 
उसी पर प्रणय-नीड़ में पाल,
 
रहा मैं सुविहग बाल!
 
पूर्ण खग से संसार,
 स्‍वरों स्वरों में जिनके स्‍वर्गिक स्वर्गिक गान, परों में उडगण-उच्‍च उच्च उड़ान, 
देख-सुन इनको ये अनजान
 
कँप रहे विहग कुमार।
 कल्‍पनाकल्पना-चलित बयार 
खोलकर प्रणय-नीड़ का द्वार,
 इन्‍हें इन्हें बाहर लाई पुचकार, उड़‍े उड़े उगते लघु पंख पसार, 
गिरे पर तन के भार।
 
धरा कितनी विकराल!
 
झुलाती मंद-मृदुल वह डाल,
 
कठोरा यह काँटों की जाल,
 
यहाँ पर आँखें लाल निकाल
 
तक रहे वृद्ध बिडाल!
 
प्रथम रोदन का गान
 बनाता स्‍त्री स्त्री का सफल सुहाग, 
पुरुष का जाग्रत करता भाग,
 
मिटा, पर, इनका रोदन-राग
 शून्‍य शून्य में हो लयमान। 
भला मानव संसार,
 
तोतले जो सुन शिशु के बोल,
 
विहँसकर गाँठ हृदय की खोल,
 विश्‍व विश्व की सब निधियाँ अनमोल 
लुटाने को तैयार!
 
हुया मुखरित अनजान
 हृदय का कोई अस्‍फुट अस्फुट गान, यहाँ तो, दूर रहा सम्‍मानसम्मान
अनसुनी करते विहग सुजान,
 
चिढ़ाते मुँह विद्वान।
 
आज मेरे खग बाल
 
बोले अधर सभाँल-सभाँल,
 
किंतु कल होकर कल वाचाल,
 भरेंगे कलरव से तत्‍कालतत्काल
गगन, भूतल, पाताल।
 
फुदकने की अभिलाष
 
आज इनके जीवन का सार,
 
'आज' यदि ये कर पाए पार,
 
चपल कर ये पने पर मार
 
मथेंगे महदाकाश।
 
भूल करता कवि बाल,
 
आज ही जीवन का सार,
 
मूर्ख लेते कल का आधार,
 
जगत के कितने सजग विचार
 
खा गया कल का काल।
 
सामने गगन अछेर,
 
उड़ाता इनको नि:संकोच,
 
हँस रहा है मुझपर जग पोछ,
 गिरे ये पृथ्‍वी पृथ्वी पर क्‍या क्या सोच? 
उड़े तो नभ की ओर!
</poem>
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