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सुनो कृष्ण / निर्देश निधि

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सुनो कृष्ण
मैं तुम्हारी आदि सखी राधा
लेती हूँ तुम्हारी सौगंध
करती हूँ तुम्हीं से वादा कि
मैं अपने प्रेम रथ की दिशा
कभी बदलूँगी नहीं
चाहे तुम बनो
कर्णधार कौरवों की सेना के
या पार्थ के सारथी
तुम तोड़ दो भले ही
अपने तथाकथित धर्म युद्ध में बिछे
अधर्म के अदृश्य जाल में उलझकर
मेरे सुलझे सुगढ़ प्रेम की
धर्म गुंथी सात्विक डोर
पर तुम्हारे इस छलिया धर्मयुद्ध से
कहीं ऊँचा है मेरे प्रेम का मस्तक
इसमें नहीं है मरणासन्न नीतियाँ
ना टूटते नियमों की दर्द भरी भयावह कराहटें
ना तुम्हारे अचूक अस्त्र
न शिखंडी के सामने निःशस्त्र होते निरीह पितामह
न ही अश्वत्थामा कि मृत्यु के झूँठे उद्घोष
तुम ईश्वर होकर भी
युद्ध के मध्य रोक कहाँ सके जान माल की हानि
या जान बूझकर की थी रिक्त तुमने
महाबलियों से भरी गर्वित भूमि
सदा ही संशय में रहती हूँ मैं तुम्हारी आदि सखी राधा
सुनो कृष्ण
तुम सब समझते हो
जब मैं कहती हूँ तब
और भी भला जब चुप रहती हूँ
अपने शंख की हुंकार के परम वेग के साथ
ठेल दिया था न मेरे प्रेम को परे
होम कर दिया था ना उसे
अपने तथाकथित धर्म युद्ध की ज्वाला में
पर मैं तब भी रही थी
एक पाँव पर साधनारत, स्थिर-अडिग
तुम्हारे अमरत्व की प्रार्थना करती
तुम्हारी आदि सखी राधा
मेरी प्रार्थना हुई थी स्वीकृत
तभी तो स्वतः मेरा प्रेम भी
तुम्हारे यश का अमरत्व पी कर
हो गया था अमर
तुम्हारे तथाकथित धर्म युद्ध से पहले ही
मैं ये कहना भूलूँगी नहीं
कि मैं तुम्हारी आदि सखी राधा
लेती हूँ तुम्हारी ही सौगंध
करती हूँ तुम्हीं से वादा कि
मैं अपने प्रेम रथ की दिशा कभी बदलूँगी नहीं।
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