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बरसों पहले गाँव के जो नाते
मैं भूल आई बरसों तक जिनपर
उपेक्षा कि धूल मैंने ख़ुद उड़ाई थी
इस बड़े शहर में
खोई हुई पहचान के संग खोजती हूँ मैं
मरकरी रौशनी की सुन्न सरहदों में
गंवई चाँदनी की चादरें क्यों चाहती हूँ मैं
इस शहर के बुझे-बुझे से अलावों में
ऊष्मा अंगार की क्यों ढूँढती हूँ मैं
भीड़ के रेलों ठुंस-ठुंस कर भी
सब के सब चेहरे अपरिचित देखती हूँ मैं
इस शहर की आधुनिक बूढ़ियों में
माँ का झुर्रियों वाला चेहरा सलौना ढूँढती हूँ मैं
अविराम के इस शहर के तेज़ कदमों के तले से
नीम की छाया तले के विश्राम वाले कुछ पहर खींचती हूँ मैं
ज्ञान के भंडार से इस शहर में
गाँव की ड्यौड़ी से छिटके कुछ निरक्षर से अक्षर
खूब चीन्हती हूँ मैं
तरण तालों के बदन पर थरथराती लड़कियों में
पोखरों की बत्तखेँ देखती हूँ मैं
सुनहरे बाज के सख्त पंजों में फंसी
नन्ही गौरैया-सी ख़ुद को दीखती हूँ मैं
बिखर गए थे जो अपने कभी
सूखी पत्तियों के ढेर पर एक-एक बीनती हूँ मैं
आसमानों ने दिये कब पंछियों को आसरे
उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर
चलूँ अब धरतियों से अब गले मिलती हूँ मैं
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