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सुनो धनियाँ / निर्देश निधि

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कल तुम्हें देखा था मैंने,
सरसों के हरे-पीले खेत के पार
साँझ की नारंगी धूप में नहाई हुई
कमर में कसी चटख गुलाबी साड़ी
क्या तुम्हें पता था
फबेगी उसपर खूब, घास की धानी गठरी
वृहत्तर हरे कैनवासों के बीचों बीच सतर पगडंडी पर।
पूरी लय और ताल के साथ
बेरहम बोझ से लचक कर जब चलती हो तुम
सौंदर्य प्रतियोगिताओं के रैम्प पर
कैटवॉक करती हर अल्पवसना
लगने लगती है बेमाने
तुम्हारे साथ गाते हैं मैली चूड़ियों के सुर
तुम्हारी तेज़ साँसों से उड़ते हैं पवन के परिंदे
तुम्हारी गिलट की पायलों की रुनझुन
भरती है चाल में रागिनी
बेला कि महकती डार जैसे
छिपी हो तुम्हारे अधखुले बालों में
उतरती धूप की अलसाई अंगड़ाई में
तुम्हारा निश्चल यौवन उगाता है धरती पर
ईश्वर के होने का विश्वास
क्या हुआ जो नहीं हैं नरम, तुम्हारे साँवले मेहनती हाथ
क्या हुआ जो नहीं हैं, तुम्हारे पाँवों की एड़ियाँ गुलाबी
मानव भेड़ियों से भरे बहरूपिये समाज से
अकेली जूझती हो तुम
पशु भेड़ियों भरे जंगलों से निडर गुजरती हो
हर मुसीबत को हँसिये से चीरती-सी तुम
कौन कहता है कि तुम में नहीं है,
सशक्त आधुनिक नारी का वास।
बताओ तो धनियाँ।
</poem>
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