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<poem>
तुम दोनों इसी लायक थे शायद
जब हमारे धमनियों मे विष पिरोया जा रहा था
तब तुम प्रेम की कोई कहानी गढ़ रहे थे
तुम दोनों का मारा जाना तय था
बस कब और कहाँ और किस तरह
इतने का ही सवाल रह गया था
तुम्हारे लिए न जाने कितने महत्त्वपूर्ण काम पड़े थे
अपने परिवार कुल और गोत्र
उप-जाति और जाति
अपने धर्म के बारे में
शेखियाँ बघारनी थी
अपने यहाँ बनने वाली सब्ज़ियों की खुशबू
अपने त्योहारों के रस्मो-रिवाज़
अपने कपड़े पहनने के रंग ढंग
अपनी भाषा-बोली के एक-एक लफ्ज़ को
एकमात्र सत्य की तरह पीना था
कई अंतहीन बेड़ियों से खुद को बांधकर
और मन ही मन कई तरह की गाँठों में बँधकर
अपने और अपनों को सर्वश्रेष्ठ मान जीवन जीना था
अपने और अपनों से दीगर
हर-एक शक्श को दोयम मान कर सड़ना था
धिक्कार है तुम्हे!
जो तुम इन महान आदर्शों
सदियों से चले आ रहे
पारिवारिक, सामाजिक मूल्यों को छोड़कर
प्रेम जैसी फ़ाज़िल बातों में फँस गए

निश्चित ही तुम दोनों का मारा जाना तय था

''‘उद्भावना ‘ 2015''
</poem>