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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
उट्ठा है जो तूफ़ान, ज़रा थम भी तो जाये
कुछ देर को ये कर्ब का मौसम भी तो जाये।

खुशियां हैं सराबों की तरह दश्ते-बला में
उन तक भी मगर सिलसिलह-ए-ग़म भी तो जाये।

फिर कर्बे-अना से मची अहसास में हलचल
बे-चारगी-ए-दीदा-ए-पुरनम भी तो जाये।

ऐजाज़े-हुनर को भी नवा पहुंचेगी, बे शक
हमराह मगर राग की सरगम भी तो जाये।

मुमकिन है कि घूमे फिरे तन्हाई भी शब में
खूं ऐसे में रग रग में मगर जम भी तो जाये।

दहशत जो थी माहौल में कम हो तो गयी है
ज़हनों से मगर दहशते-कम कम भी तो जाये।

सब रास्त ही चलते हैं मगर राह में चलते
नागाह जो आ जाये है वो खम भी तो जाये।

बे-सम्त तगो-ताज़ को हो सम्त भी हासिल
आवारा हवाओं का मगर बल भी तो जाये

हर छोटा बड़ा काम समंदर नहीं करते
गुंचो का वज़ू करने को शबनम भी तो जाये

शायद तेरा किरदार मिसाली भी हो 'तन्हा'
आकाश में ऊंचा तिरा परचम भी तो जाये।

</poem>
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