भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश तन्हा |अनुवादक= |संग्रह=तीसर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश तन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
गायब थी मंज़िलें कहीं रस्ते धुआँ धुआँ
आवारगी लिये फिरी मुझको कहाँ-कहाँ।
बर्गे-गुले-वजूद हूं ख्वाबों के दरमियाँ
या ज़र्रा फैसला हुआ ता-हद्दे-लामकाँ।
हाइल हिजाब लाख हैं दोनों के दरमियाँ
वो मेरा राज़दार हूँ मैं उसका राज़दाँ।
दिन कट गया उमीद की खुश-फ़हमियों के साथ
शब भी गुज़र ही जायेगी ख्वाबों के दरमियाँ।
थी हद्दे-मुमकिनात में तज़सीमे-हर ख़याल
रंगों का इज़्दहाम थे सौ वहम सौ गुमाँ।
जैसा भी हो, यहां से है बेहतर निकल चलें
किस किस का सर बचायेगा ये शहर-बे-अमां।
इक अब्र-पारा दोशे हवा पर है हर खुशी
ग़म मुस्तक़िल ग़ुबार सा जैसे कि आसमां।
ये कौन लोग हैं जो तआकुब में हैं मिरे
मैं ने तो अपने आप को समझा था राएगां।
रिश्तों का कर्ब, सोच की अंगड़ाइयाँ थकन
ले दे के बस यही तो है इंसां की दास्ताँ।
दर-पेश हैं हयात को अब भी वो मसअले
खोली नहीं है वक़्त ने जिन पर अभी ज़बां।
मैं बारे-इल्तिफ़ाते-फरावां न सह सका
वरना तुम्हारे कर्ब में था लुतफ़े-दो-जहाँ।
'तन्हा' हिसारे-ज़ात के जिन्दां में हब्स है
फिर क्यों न इसको तोड़ के हो जाओ केकरां।
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश तन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
गायब थी मंज़िलें कहीं रस्ते धुआँ धुआँ
आवारगी लिये फिरी मुझको कहाँ-कहाँ।
बर्गे-गुले-वजूद हूं ख्वाबों के दरमियाँ
या ज़र्रा फैसला हुआ ता-हद्दे-लामकाँ।
हाइल हिजाब लाख हैं दोनों के दरमियाँ
वो मेरा राज़दार हूँ मैं उसका राज़दाँ।
दिन कट गया उमीद की खुश-फ़हमियों के साथ
शब भी गुज़र ही जायेगी ख्वाबों के दरमियाँ।
थी हद्दे-मुमकिनात में तज़सीमे-हर ख़याल
रंगों का इज़्दहाम थे सौ वहम सौ गुमाँ।
जैसा भी हो, यहां से है बेहतर निकल चलें
किस किस का सर बचायेगा ये शहर-बे-अमां।
इक अब्र-पारा दोशे हवा पर है हर खुशी
ग़म मुस्तक़िल ग़ुबार सा जैसे कि आसमां।
ये कौन लोग हैं जो तआकुब में हैं मिरे
मैं ने तो अपने आप को समझा था राएगां।
रिश्तों का कर्ब, सोच की अंगड़ाइयाँ थकन
ले दे के बस यही तो है इंसां की दास्ताँ।
दर-पेश हैं हयात को अब भी वो मसअले
खोली नहीं है वक़्त ने जिन पर अभी ज़बां।
मैं बारे-इल्तिफ़ाते-फरावां न सह सका
वरना तुम्हारे कर्ब में था लुतफ़े-दो-जहाँ।
'तन्हा' हिसारे-ज़ात के जिन्दां में हब्स है
फिर क्यों न इसको तोड़ के हो जाओ केकरां।
</poem>