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12:35, 13 अगस्त 2020 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश तन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
मंज़िल का त'ऐयुन है, न रस्ते की खबर है
बस चलते चले जाना है, यह कैसा सफ़र है।
ख्वाबों का ख्याबां है सराबों का सफ़र है
इस ज़ीस्त के सहरा से गुज़र जाना हुनर है।
आंखों में समंदर है तो सीने में भँवर है
ऐ ज़ीस्त तिरे हाल की सब हमको खबर है।
किस हाल में रहते हैं, कहां तुझको खबर है
हम इश्क़ के मारों की गुज़र है न बसर है।
इन चलती हवाओं से कोई आस न रखना
इन चलती हवाओं पे ज़माने की नज़र है।
क्या शाखे-वफ़ा अब न कभी फूले-फलेगी
हर सम्त वहीं शोर, वहीं रक्से-शरर है।
बाज़ार में निकलेंगे भी तो आइना लेकर
कुछ लोग, जिन्हें भीड़ में खो जाने का डर है।
वो भी हैं जिन्हें चेहरा तक अपना भी नहीं याद
शायद ये सदा भीड़ में चलने का असर है।
उम्मीद को भी क्या नहीं उम्मीद की उम्मीद
हर नख्ले-तमन्ना है कि बे-बर्गो-समर है।
गुस्ताख़ परिंदों ने जिसे काट दिया है
इस बाग़ में हर शाख़ पे ये कैसा समर है।
छोड़ आया हूँ मैं खुद को बहुत दूर अकेला
अब तू ही हर इक सम्त है या तेरी खबर है।
पतझड़ का समां जिस ने न देखा कभी 'तन्हा'
आंगन में मिरी याद के ऐसा भी शजर है।
</poem>