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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
हम तो झोंके हैं अज़ल ही से, हवा के 'तन्हा'
दास्तां अपनी समंदर पे रक़म करते हैं

पांव तूफां के हैं, तो हाथ सबा के 'तन्हा'
हम तो झोंके हैं अज़ल ही से, हवा के 'तन्हा'
पासदारों में सज़ा के न जज़ा के 'तन्हा'

हम को महकूम न खुशियां न अलम करते हैं

हम तो झोंके हैं अज़ल ही से, हवा के 'तन्हा'
दास्तां अपनी समंदर पे रक़म करते हैं।

</poem>
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