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लौटना और भूलना / उपासना झा

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<poem>
खिड़कियों पर जमी ओस पर
मैं उकेरूँगी कोई आसान चिन्ह
कोई सीधी लकीर या कोई टूटता तारा
या कुछ भी जो न लिखे तुम्हारा नाम
सुबह सुने जा सकते हैं कई स्वर
कई धुनें, कई राग-रागिनियाँ
कई बूझ-अबूझ संगीत भी
जो भुला रखे तुम्हारी आवाज़ पहनने की लत
सुबह की जा सकती हैं कई प्रार्थनाएं
रात की कई धुँधली कामनाओं के बाद
उन प्रार्थनाओं में तुम न आओ

एक अधजली इच्छा रखूँगी दिए की जगह
किसी सुन्दर कविता की किसी ठहरकर
पढ़ी जाने वाली पँक्ति को पढूँगी
बिना तुम्हारी मुस्कान याद किये
बिना तुम्हारे चेहरे की छांह छुए
रंग-फूल-गंध-धूप-हवा-पानी-रात-दिन
सब शाश्वत हैं फिर भी बदल जाते हैं

मर जाना नहीं होता साँस लेना बंद करना
जन्म लेना नहीं होता है नयी देह पाना
मैं इस तरह कई छोटे कदम चलूँगी
वापसी की ओर,
लौट आना और भूल जाना दोनों
लगते एक हैं, होते अलग हैं</poem>
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