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आत्मस्वीकृति / उपासना झा

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<poem>
नींद की चौहद्दी पार कर
स्वप्नों के धुँधले रास्ते पर
चलने लगती हैं कुछ अबूझ पीड़ाएँ
जो खींचती है एक बारीक महीन रेखा
अकेले होने और अकेले पड़ जाने के बीच
अपने को समझाने के कई तरीकों में
हम सृष्टि के नियम एक बार फिर दुहरा लेते हैं
‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च’
मन के शून्य-मंदिर में
न कोई स्वर है न कोई सुगंध
सब कठोर है प्रस्तर पिंडो सा
जिसे होना चाहिए था नये जन्मे
शिशु की मुस्कान सा कोमल
मनुष्य का वही हृदय
दुनिया की सबसे कठोर वस्तु भी हो सकता है</poem>
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