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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिमोहन सारस्वत
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
भेड हांकने वाले
गड़रिये
बदल जाते हैं
टिचकारियों के सख्त स्वर
कुछ दिनों के लिये
पिघल जाते हैैं
एक बारगी तो
डण्डा भी उठने का स्वभाव
भूल जाता हैं
और इन्ही चन्द दिनों
देश का आम आदमी
नई आशाओं के हिण्डोले में
झूल जाता है
पर जहां आधी सदी
गुजरी हो
टिचकारियों के बीच
वहां चन्द दिनों की क्या गिनती ?
इन चन्द दिनों के गुजरते ही
पूरी तरह भेड़
बन जाता है
देश का आम आदमी
जिसकी ऊन
बरस दर बरस
किश्तों में उतरती है
ऊन उतरने से
दुःखी नहीें है भेड़ें
ऊन देना उनका धर्म है
पर इन दिनों
ऊन के बहाने
खाल तक जा पहुंची है
कैंची की धार
और गड़रिया गोष्ठियों में
गुपचुप चर्चा है
कि गोश्त पर हो अगला वार
इसीलिये शायद अब
देश में भेड़ें उदास है
चुनाव के बाद !
</poem>
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भेड हांकने वाले
गड़रिये
बदल जाते हैं
टिचकारियों के सख्त स्वर
कुछ दिनों के लिये
पिघल जाते हैैं
एक बारगी तो
डण्डा भी उठने का स्वभाव
भूल जाता हैं
और इन्ही चन्द दिनों
देश का आम आदमी
नई आशाओं के हिण्डोले में
झूल जाता है
पर जहां आधी सदी
गुजरी हो
टिचकारियों के बीच
वहां चन्द दिनों की क्या गिनती ?
इन चन्द दिनों के गुजरते ही
पूरी तरह भेड़
बन जाता है
देश का आम आदमी
जिसकी ऊन
बरस दर बरस
किश्तों में उतरती है
ऊन उतरने से
दुःखी नहीें है भेड़ें
ऊन देना उनका धर्म है
पर इन दिनों
ऊन के बहाने
खाल तक जा पहुंची है
कैंची की धार
और गड़रिया गोष्ठियों में
गुपचुप चर्चा है
कि गोश्त पर हो अगला वार
इसीलिये शायद अब
देश में भेड़ें उदास है
चुनाव के बाद !
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