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घन में सुंदर बिजली-सी
बिजली में चपल चमक सी
आँखो में काली पुतली
पुतली में श्याम झलक सी
 
प्रतिमा में सजीवता-सी
बस गयी सुछवि आँखों में
चुगने की मुद्रा ऐसे?
विकसित सरसित सरसिज वन-वैभव
मधु-ऊषा के अंचल में
उपहास करावे अपना
कुछ सच्चा स्वयं बना था।
वह रूप रूप ही था केवल
या रहा हृदय भी उसमें
जड़ता की सब माया थी
देती गलबाँही डाली
फूलों का चुम्बन, छिड़ती
मधुप मधुपोन् की तान निराली।
मुरली मुखरित होती थी
फिर मिलन कुंज में मेरे
चाँदनी शिथिल अलसायी
सुख के सपनों से तेरे। मेरे।
लहरों में प्यास भरी है
छिप गयी कहाँ छू कर वे
मलयज की मृदु हिलोरें
क्यों घूम गयी हैं है आ कर
करुणा कटाक्ष की कोरें।
विस्मृति हैं, मादकता हैं
मूचर्छना मूर्च्छना भरी हैं है मन में
कल्पना रही, सपना था
मुरली बजती निर्जन में।
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