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<poem>
ज़िन्दगी अब आँधियों सी हो रही है
रेत से आँखें हमारी धो रही है

शुष्क पत्ते झर रहे थे दुख नहीं था
शाख़ तो अब कोंपले भी खो रही है

सिर्फ़ लिख कर रह गयी हूँ वेदनाएं
सोच कर शर्मिन्दगी सी हो रही है

खिड़कियाँ ताज़ा हवाएँ ला रही हैं
अब हमीं से ताज़गी गुम हो रही है

हाथ दस्तक देते देते थक गए हैं
रौशनी सांकल लगा कर सो रही है
</poem>
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