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{{KKRachna
|रचनाकार=राजेन्द्र देथा
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
इधर जब से इस शहर में आया
सच कहूँ तो बहुत प्रभावित हुआ
इस शहर से और कुछ समय बाद
इस शहर के बड़े साहित्यकारों से
मसलन मैंने जाना शुरू किया
गोष्ठियों बड़े कार्यक्रमों,सम्मेलनों में
मेरा जाने का कारण उन दिनों यही
था कि सीखनी है अपने को कोई ढंग
की कविता करनी और बड़ी प्यारी कविता
यह बात और है कि मैं अपनी मर्जी से
यह नुस्खा नहीं अपना रहा था,
यह नुस्खा मुझे मेरे अभिन्न
साथी ने दिया था जो कि स्वंय
अब स्थापित होने के कगार पर है
मैं जाता,बड़े लोगों से परिचित रूप से सबंध बनाता
बातें करता,उनकी किताबों पर लिखने के लिए कहता
जायज है उनकी खुशी अपार होती,
कुछ अच्छे थे वे मुझे जान चुके थे
इधर मैं हमेशा आलोचना की किताबें पढ़ता
भारतीय कविता संचयन की किताबें भी पढ़ीं
लेकिन कविता नहीं बनी तो नहीं बनी
मैं थका हारा यह शहर छोड़ जा चुका था
अपने गांव की सीम में अपने खेत पर
मैं जाने लगा अब हमेशा
गांव की उस दुकां पर
और बैठता इत्मिनान से
सुनता सरपंच की दबंगई की बातें
डरता मैं भी कुछ बदमाशों की बातें सुनकर
मैं उसी दिन अपने उक्त अभ्यास पर
रो रो कर कहने लगा
भले मानुष कविता यहां थी
तुने वहां क्या ढूंढ़ा मात्र
बतकही के अलावा!
</poem>
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|अनुवादक=
|संग्रह=
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इधर जब से इस शहर में आया
सच कहूँ तो बहुत प्रभावित हुआ
इस शहर से और कुछ समय बाद
इस शहर के बड़े साहित्यकारों से
मसलन मैंने जाना शुरू किया
गोष्ठियों बड़े कार्यक्रमों,सम्मेलनों में
मेरा जाने का कारण उन दिनों यही
था कि सीखनी है अपने को कोई ढंग
की कविता करनी और बड़ी प्यारी कविता
यह बात और है कि मैं अपनी मर्जी से
यह नुस्खा नहीं अपना रहा था,
यह नुस्खा मुझे मेरे अभिन्न
साथी ने दिया था जो कि स्वंय
अब स्थापित होने के कगार पर है
मैं जाता,बड़े लोगों से परिचित रूप से सबंध बनाता
बातें करता,उनकी किताबों पर लिखने के लिए कहता
जायज है उनकी खुशी अपार होती,
कुछ अच्छे थे वे मुझे जान चुके थे
इधर मैं हमेशा आलोचना की किताबें पढ़ता
भारतीय कविता संचयन की किताबें भी पढ़ीं
लेकिन कविता नहीं बनी तो नहीं बनी
मैं थका हारा यह शहर छोड़ जा चुका था
अपने गांव की सीम में अपने खेत पर
मैं जाने लगा अब हमेशा
गांव की उस दुकां पर
और बैठता इत्मिनान से
सुनता सरपंच की दबंगई की बातें
डरता मैं भी कुछ बदमाशों की बातें सुनकर
मैं उसी दिन अपने उक्त अभ्यास पर
रो रो कर कहने लगा
भले मानुष कविता यहां थी
तुने वहां क्या ढूंढ़ा मात्र
बतकही के अलावा!
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