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{{KKRachna
|रचनाकार=रघुनाथ शाण्डिल्य
|अनुवादक=
|संग्रह=सन्दीप कौशिक
}}
<poem>
'''अपना मानस अपना हो सै, पास रहो चाहे न्यारा,'''
'''इज्जत नहीं बंटया करती, चाहे धन बंटज्याओ सारा ।।टेक।।'''

बार बार प्रणाम करु, जिसनै पैदा इंसान करया,
धन माया का मेल मिल्या, जिसनै जैसा पुन्नदान करया,
जब संस्कार का ज्ञान करया, तो कोई दुश्मन कोई प्यारा।।

फूल के रस नै के जाणै, जो हो पत्थर का कीड़ा,
बाँझ लुगाई के जाणै, के हो जापे म्य पीड़ा,
मान का पान लगया होया बीड़ा, ना मीठा ना खारा।।

बीमारी नै दूर करै, काम दवा का हो सै,
न्याधीश सही न्याय करै, सबूत गवाह का हो सै,
जग म्य मोल हवा का हो सै, कोई जीता कोई हारा।।

जो सोवै सै खोवै, वो पावै जो जागै,
कहै रघुनाथ बात सच्ची, पर समझदार कै लागै,
प्रारब्ध के आगै, जीव का चलता ना चारा।।
</poem>
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