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{{KKRachna
|रचनाकार=रघुनाथ शाण्डिल्य
|अनुवादक=
|संग्रह=सन्दीप कौशिक
}}
<poem>
'''हे! सच्चे भगवान, बचाले जान, ये कैसा थाणा,'''
'''जहां मरे हुए नै भी मारै ।। टेक ।।'''

आज राज मै बुझ रही ना, सच्चे माणस चोखे की,
चोर डांट रहे कोतवाल नै, खरी मिशल मौके की,
सै धोखे की बात, कांप रहा गात, ना ठौड़ ठिकाणा,
जब प्यारे सिर नै तारै ।।

लोभी और लालची मानस, करज्या काम घणे माड़े,
चोर चौधरी पंच उच्चके, रिश्वत से चाले पाड़े,
फिरै लुन्गाड़े भजे, उड़ा रहे मजे, कपट का बाणा,
संत खता बिन हारै ।।

बिना दया चंडाल कसाई, पेट मांस से भरते,
धोरै बैठके जड़ काटै है, नहीं पाप से डरते,
यहाँ बुड्डे भी करते ब्याह, बिगड़ गया राह, ठीक कर जाणा,
जहां विधवा सुरमा सारै ।।

रिश्वत का संसार जगत मै, स्वार्थ घणा बढ़ा है,
रघुनाथ बावला भोला, थोड़ा ही लिखा पढ़ा है,
जो चढ़ा है सो ही ढला, बुरा और भला, राग का गाणा,
सब सुनके आप विचारै।।
</poem>
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