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{{KKRachna
|रचनाकार=रघुनाथ शाण्डिल्य
|अनुवादक=
|संग्रह=सन्दीप कौशिक
}}
<poem>
'''दुशासन तुझे सुनाऊंगी, दुर्वासा का वरदान ।।टेक।।'''

एक समय दुर्वासा ऋषि, तपे खड़े यहां आके।
कुन्ती ने सेवा करी, ऋषि जी की खूब निभाके।।
करा था भण्डारा, कथा पूर्णिमा की गंगा नहाके।
कुन्ती से बोला बेटी, सुबह स्नान कर आइये।।
देंगे भगवान तडक़े, जो मन में हो सोई बताइये।
संत की सेवा का फल है, मन चाहा वरदान पाइये।।
अब सारी बात बताऊंगी, तू सुनिये करके ध्यान।।1।।

ऋषि जी की सुनके बात, मुझे नींद नहीं आई।
तारों की छांह सुबह, मेरे मन में बदी आई।।
कुन्ती का भेष करके, ऋषि ने न्यूं बतलाई।
सौ बेटे मांगे मैंने, दुर्वासा के चरण देख।।
सौ बेटे सुनके ऋषि जी ने, दिये एक सौ एक।
पूरा होगा वचन ऋषि बोला, राम राखे टेक।
ना मन में भेद छुपाऊंगी, मैं घनी बनी बेईमान।।2।।

फेर कुन्ती भी जा पहुंची, दुर्वासा ऋषि के पास।
हाथ जोड़ प्रणाम करी, मेरी करियो पूरी आस।।
ऋषि बोला सौ बेटे भी, लेके कुन्ती हुई निरास।
करते करते बात फेर, मेरा सारा भेद खुला।।
ऋषि जी को क्रोध आया, धोखा जान हृदय डुला।
पांच पुत्र तेरे होंगे, जा कुन्ती ये न्याव तुला।।
मैं कैसे पाप मिटाऊंगी, हुई ममता में अज्ञान।।3।।

बेईमान को सौ पुत्र, और सतवन्ती को दिये पांच।
ऋषि बोला छिपे नहीं, दुनिया में झूंठ सांच।
सौ को देंगे मार तेरे, पांच को ना आवे आंच।
ऋषि जी के मुंह से सुनी, हमने भी ये सारी बात।
दोष ना किसी का भोग मिले, हैं कर्मों के साथ।
मानसिंह का शिष्य कविता, कर गाता है रघुनाथ।।
मैं भी लयसुर में गाऊंगी, भगवान करे कल्याण।।4।।
</poem>
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