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{{KKRachna
|रचनाकार=रघुनाथ शाण्डिल्य
|अनुवादक=
|संग्रह=सन्दीप कौशिक
}}
<poem>
'''रात मेरे सुपने में बेटा, चाला हो गया।'''
'''ना कहने की बात कुटम का, गाला हो गया।। टेक।।'''

हाथी की जगह भैंसे हो गये, घोड़ों की जगह ऊंट।
थारे सिर पर मौड़ बन्धा, मेरी मतना जानो झूंठ।।
थी उत्तर ने पीठ मेरी, और मुंह दक्षिण की खूंट।
थारा पिता थारे सिर पर मोर था, भर पैसों की मूंठ।।
सजके चली बरात, भेष तेरा काला हो गया।।1।।

साथ में बराती, द्रोणाचारी भी चले।
मामा धवल शकुनि, ले सवारी भी चले।।
अश्वत्थामा ओर कर्ण, धनुर्धारी भी चले।
सबके दादा भीष्म जी, बलकारी भी चले।।
फेर अचानक बन्द किले का, ताला हो गया।।2।।

भूत बजावें ताल, जोगनी मंगल गावें थीं।
डांण डंकनी और मसानी, मांस खावें थीं।।
द्रोपदी और सुभद्रा दोनों, मल मल नहावें थीं।
हस्तनापुर में थारे खून का, नाला हो गया।।3।।

मतना छेड़ो द्रोपद को, खोटी स्यात दिखाई दे।
रात खप गया सुपने में, सबका गात दिखाई दे।।
सबको कोयना कुदरत की, करामात दिखाई दे।
कहे रघुनाथ आत्मा में, सब बात दिखाई दे।।
गुरु मानसिंह के ज्ञान का, उजाला हो गया।।4।।
</poem>
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