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{{KKRachna
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
|अनुवादक=
|संग्रह=परशुराम की प्रतीक्षा / रामधारी सिंह "दिनकर"
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<poem>
हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?
चोरों के हैं जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता हैहितू,<br>या किसी लोभ ठगों के विवश मूक रहता हैबल हैं,<br>उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,जो छल-प्रपंच, सब को धिक् हैप्रश्रय देते हैं,<br>यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।<br><br>या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,<br>लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।<br>असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,<br>पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।<br><br>
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,<br>किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।<br>बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,<br>सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।<br><br>
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?<br>यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?<br>तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,<br>है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।<br><br>
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,<br>शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।<br>हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,<br>कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।<br><br>
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,<br>आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,<br>सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,<br>हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।<br><br>
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,<br>दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।<br>हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,<br>है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?<br><br>
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !<br>जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !<br><br>
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,<br>या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;<br>तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,<br>निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,<br><br>
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,<br>
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
</poem>