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<poem>
जाने कितने संबोधन हैं लेकिन कैसे तुम्हें पुकारूँ।
बदली उड़ती आसमान में और हवा के संग इतराती,
कभी निकट तो कभी दूर हो अपने यौवन में बलखाती।
मेरा मन करता है तुमको सावन वाली घटा पुकारूँ।
जाने कितने संबोधन.......

भोर हुए बिखरी सी मिलती स्वर्णिम रूपराशि दस दिशि में,
अलसायी सी और उनींदी राजकुँअरि जागी ज्यों निशि में।
सोनजुही सी कोमल लतिका मन करता मधुमती पुकारूँ
जाने कितने संबोधन.....

तुम रूठो मैं तुम्हे मनाऊँ, मान जाओ तो मैं मुस्काऊँ,
तुम मेरे हृद का स्पंदन और स्वांस भी तुम्हे बनाऊँ।
मैं प्यासा हूँ प्रेम नीर का, तुमको क्या मैं नदी पुकारूँ
जाने कितने संबोधन .....
</poem>
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