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<poem>
प्रेम की खेती नही होती
नियति इसको है स्वतः बोती
हल स्वयं चलता हृदय में भावनाओं का
बीज बो जाता स्वयं है कामनाओं का
नयन दर्शन की विकलता भोगते है
और अंतस व्रत निभाता अर्चनाओं का।
आरज़ू हंसती कभी रोती
प्रेम की खेती नही होती।
तभी बादल बरस उठते हैं समर्पण के
और यह मन यज्ञ करता सिर्फ अर्पण के
जगत का सौंदर्य खुद में आ समाता
सामने हम घर बसाते रोज़ दर्पण के।
आंख बढ़ कर गाल को धोती
प्रेम की खेती नही होती।
पथ बने है प्रेम वाले बिन थकावट के
मार्ग सुंदर लग रहे है बिन सजावट के
मीठा खट्टा स्वाद ही हर ओर बिखरा
प्रेम के व्यंजन बने सब हैं अमावट के।।
यहां अभिलाषा नही सोती।
प्रेम की खेती नही होती ।।
</poem>
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